दिल्ली की सीलिंग और यमुना पुश्ते के विस्थापन के मीडिया कवरेज पर दूसरी किश्त
दोस्तो दिल्ली में अवैध निर्माण तोडने और सीलिंग लागू करने के अभियान की मीडिया कवरेज यमुना पुश्ते पर हुये विस्थापन की कवरेज से किस तरह और कितना भिन्न है इसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि ये दोनों घटनायें क्यों और किन परिस्थितियों में शुरू हुईं. इसके साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि आखिर इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग कौन हैं.
सबसे पहले सीलिंग की बात करते हैं. २००५ के साल में दिसंबर का महीना था. दिल्ली की सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी. तभी अदालत के फरमान से दिल्ली में सीलिंग की शुरुआत हुई. वैसे दिल्ली के अवैध निर्माण को लेकर कई याचिकायें काफी पहले से दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित थीं. दिसंबर २००५ में सुनवाई के बाद अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुये आदेश दिया की अवैध निर्माण तोडने की प्रक्रिया तत्काल शुरू कि जाये और सारे अवैध निर्माण जिनकी सूची दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी के पास है उन्हें एक महीने के भीतर तोड दिया जाये. १८ दिसंबर २००५ को एमसीडी ने दिल्ली पुलिस की मदद से अवैध निर्माण तोडना शुरू किया. इस अभियान से पूरी दिल्ली में हंगामा मच गया. यह एक दोहरा अभियान था, जिसमें न सिर्फ अवैध निर्माण तोडा जाने वाला था, बल्कि रिहायशी इलाकों में चल रही कारोबारी गतिविधियों को भी बंद किया जाना था. अवैध निर्माण और रिहायशी इलाकों में कारोबारी गतिविधियां चलाने वाले वे लोग थे, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां इतनी बेहतर थीं कि वे अवैध काम कर सकते थे. दिल्ली में रहने वालों को पता है कि यहां कोई भी अवैध निर्माण करना कितना कठिन होता है. इसके लिये हमेशा आपके साथ रहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस को साधना होगा, एमसीडी के अधिकारियों को पटाना होगा, फिर पानी और बिजली वाले विभाग के अधिकारियों को भी किसी न किसी तरह से साथ मिलाना होगा तब जाकर बात बनेगी. ये सारे काम या तो पैसे के दम पर होंगे या किसी बहुत ऊंची पैरवी के दम पर. बगैर किसी पक्के आकलन के कहा जा सकता तमाम या ज्यादातर अवैध निर्माण उन लोगों के थे, जिनके पास अवैध और अनाप-शनाप पैसा है. क्योंकि अपनी मेहनत की कमाई को अवैध निर्माण मे नहीं लगाता, दूसरे कोई बैंक अवैध निर्माण के लिये कर्ज भी नहीं देता. इसलिये जाहिर है कि अदालत के निर्देश पर शुरू हुये इस अभियान का नकारात्मक असर इस महानगर के अगर सबसे प्रभावशाली नहीं तो कम से कम प्रभावशाली वर्ग के उपर पडना था और कायदे से अगर ये अभियान चलता रहता तो दिल्ली के भू माफिया, बिल्डर लाबी, भ्रश्ट अधिकारियों और नेताओं का गठजोड उजागर हो जाता. इससे स्पश्ट है की जिन लोगों को इस अभियान से नुकसान होना था वे ऐसे लोग थे जिनके हितों को बचाने की जिम्मेदारी नेताओं, अधिकारियों और काफी हद तक मीडिया की भी थी.
जो लोग इस अभियान के खिलाफ सडकों पर उतरे उन्हें देखकर तस्वीर और साफ हो जाती है. भाजपा नेता सबसे प्रमुखता से सडक पर उतरे. कांग्रेस के नेता चाह कर भी ऐसा इसलिये नहीं कर पाये क्योंकि दिल्ली और केन्द्र दोनों जगह उनकी सरकार थी. लेकिन परदे के पीछे से उन्होंने यह व्यवस्था कर दी कि यह अभियान दम तोड दे. सीलिंग का शिकार हो रहे वर्ग और उसके खिलाफ खडे लोगों के हित एक थे और चूंकि मीडिया के हित भी इसी वर्ग से जुडे हैं (प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी) इसलिये इस विरोध को इतना मुखर स्वर मिला.
पुश्ते के विस्थापन की स्थितियों, उससे प्रभावित हो रहे लोगों की वर्गीय हैसियत, इसके प्रति सीलिंग के विरोध में खडे वर्ग का नजरिया और उसमें मीडिया की भूमिका पर अगली किश्त बहुत जल्दी.
अजीत द्विवेदी
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